बुधवार, 28 सितंबर 2011

ब्रह्मचर्य पर श्रीमद् भागवत का स्पष्ट कथन...

ब्रह्मचर्य पर दुराग्रहों से ग्रस्त कुछ तथाकथित मनोवैज्ञानिक प्राचीन ग्रन्थों का भ्रामक हवाला देकर भी अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। वे यह तो मानते हैं कि ब्रह्मचर्य की महिमा की गुणगान हमारे प्राचीन ग्रन्थों में किया गया है (क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष सत्य है, इसका वे खंडन नहीं कर सकते) लेकिन अपना उल्लू सीधा करने के लिए ब्रह्मचर्य के अर्थ की जड़ें खोदना शुरू कर देते हैं। वे यह कहते हैं कि जिस ब्रह्मचर्य की बात वहाँ की जा रही है वह वीर्यरक्षा से सम्बन्धित न होकर कुछ और ही है। और आगे वही घिसे पिटे तर्क ... "ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म की खोज, इसका मतलब यह नहीं कि उसमें वीर्यरक्षण जरूरी हो"...वही घिसे पिटे जुमले... "ब्रह्मचर्य का अर्थ है ऐसी जीवनशैली जो ब्रह्म की ओर ले जाये यह जीवनशैली सहज है इसमें इन्द्रियनिग्रह की जरूरत नहीं"। दोस्तों इसके आगे हमें निरुत्तर हो जाना पड़ता है, क्योंकि यह एक ऐसा दावा है जो लगता है कि संस्कृत के ग्रन्थों की खूब खोल-पलट करने के बाद किया गया है। लेकिन क्या ऐसा सचमुच है? नहीं।


मैं जब सोलह सतरह वर्ष का था तब हमारे एक स्थानीय अखबार में एक "मनोवैज्ञानिक" शहर-भर की सारी समस्याएँ सुलझाने के लिए एक स्तम्भ लिखते थे। वे ज्यादातर समस्याओं को घुमा फिराकर मुक्त यौनसन्तुष्टि तक ले आते थे, और फिर जल्दी से अपना प्रिय विषय प्रतिपादित कर देते थे कि ब्रह्मचर्य का कन्सैप्ट ही भारत की सारी समस्याओं की जड़ है। अब सोचिये कि मेरे बालमन पर इसका कितना विलोडक प्रभाव पड़ता होगा।  वह तो ईश्वर की कृपा थी कि मुझे अपना खुद का अनुभव बार-बार यह अहसास करवाता रहा कि भाई आनन्द तो ब्रह्मचर्य की स्थिति में ही है। इसके अलावा भी छोटे-मोटे मनोवैज्ञानिक अखबारों में अपना मत रखकर ब्रह्मचर्य के खुद अर्थ पर ही प्रश्नचिह्न लगाते रहते थे। लेकिन हमारे धर्म के नियमों में तो अनुभव की छाप है, और ठीक इसीलिए मेरा भी अनुभव इससे भिन्न नहीं होता था। मैं कभी कभी पसोपेश में भी पड़ा लेकिन अन्त में यही निकलकर आता था कि खुद ही समझ लो, क्या वैसा सोचने में भी शान्ति है? कमोबेश ऐसा पसोपेश सभी युवाओं के मन में ऐसे तर्क सुनकर उत्पन्न होता है। लेकिन हम आपको बता दें कि ऐसे तर्क करने वाले प्रायः धर्मग्रन्थों का केवल सतही ज्ञान ले करके आये होते हैं।

लेकिन हम आपके हित के लिए बता दें कि श्रीमद् भागवत पुराण जो कि भारतीय धर्म और संस्कृति का विश्वकोश कहा जाता है, में ब्रह्मचर्य का बड़ा स्पष्ट प्रतिपादन है वहाँ एक श्लोक आता है-


 रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम्।
 अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु यतासुस्त्रिपदां जपेत् ॥

  - श्रीमद् भागवत पुराण 11 वाँ स्कन्ध, 17 वाँ अध्याय, 25 वाँ श्लोक

अर्थ - ब्रह्मचर्य व्रत धारे हुए व्यक्ति को चाहिये कि अपना वीर्य (रेतस्)  स्वयं कभी भी न गँवाए। और यदि वीर्य कभी (अपने आप) बाहर आ ही जाये तो ब्रह्मचर्य व्रतधारी को चाहिये कि वह पानी में अवगाहन करे (यानी नहाये) और थोड़ा प्राणायाम करके गायत्री मन्त्र का जाप करे।

(इसका सन्धि विच्छेद करके शब्द इस प्रकार हैं-

 रेतो न अवकिरेत् जातु, ब्रह्मव्रतधरः स्वयम्।
अवकीर्णे अवगाह्य अप्सु यतासुः त्रिपदां जपेत्॥)

यहाँ कुछ भी द्विअर्थी नहीं, यानी समूची व्याख्या सरल है। रेतस् का अर्थ वीर्य ही होता है। ब्रह्मव्रत यानी ब्रह्मचर्य व्रत (यह ब्रह्मचर्य का एक और गौरवपूर्ण नाम है)। इस एक छोटे से श्लोक ने मुझे बहुत सारी शिक्षाएँ दी हैं। पहली बात तो यह है कि यह ब्रह्मचर्य के नाम पर खौफ़ नहीं पैदा करता। बल्कि सत्य को सत्य की तरह रखता है। यह कहता है कि ब्रह्मचर्य व्रती को स्वयं रेतस् का नाश नहीं करना चाहिये। यानी कि यहाँ व्यक्ति की खुद की नीयत ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। और फिर यह, स्वतः वीर्यस्राव को यह हौवे की तरह नहीं रखता, साथ ही, उसका भी प्रतिकार बताता है- कि यदि स्वतः वीर्यस्राव हो जाये तो जल से नहाकर, प्राणायाम करके गायत्री जाप करें। भक्ति के विश्वकोश में यह एक ज्ञान (या विज्ञान) की बात आयी है। नहा लेने से स्वतः स्राव से उत्पन्न होने वाली अपवित्रता कुछ हद तक दूर हो जाती है (ध्यान दें कि स्वतः वीर्यस्राव को भी न होने देने का हमारा प्रयास रहना चाहिये, इसके लिए भी विचार व्यवहार का सुधार करना होता है)। नहाने के बाद प्राणायाम किये जाने से मन की एकाग्रता पुनः सात्त्विक दिशा में मोड़ने में भारी मदद मिलती है (यह परिणाम तुरन्त होता है)। और गायत्री मन्त्र तो ब्रह्मचर्य की विख्यात टेक है ही। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्लोक में ब्रह्मचर्य का अर्थ तो साफ बताया ही है, ब्रह्मचर्य में सहायक तीन तकनीकें भी बोनस के रूप में बता दी गयी हैं (स्नान, प्राणायाम और गायत्री मंत्र का बार-बार उच्चारण)।

इसका मतलब यह हुआ कि प्राचीन भारत में जब श्रीमद् भागवत के सुनने-सुनाने की परंपरा रही होगी, तब लोग ब्रह्मचर्य की अवधारणा को ऐसे श्लोकों के माध्यम से साफ़-साफ़ एक-दूसरे तक और पीढ़ी-दर-पीढ़ी कम्यूनिकेट करते होंगे। आज की तरह नहीं कि ब्रह्मचर्य की बात में शर्म और बाकी बातों में लज्जाहीनता। और यह सर्वमान्य है कि पुराणों का प्रचलन जनसाधारण में काफ़ी था इसलिए लगता है कि ब्रह्मचर्य की अवधारणा को जन-जन तक पहुँचाना प्राचीन तत्त्वद्रष्टाओं की दृष्टि में था। आशा है इस एक श्लोक ने हमारे युवावर्ग के मन में उठने वाले एक प्रमुख सन्देह का निराकरण किया होगा। 

इति शुभम्॥

शनिवार, 17 सितंबर 2011

ब्रह्मचर्य की परिभाषाएँ...


परिभाषा हालाँकि हर चीज़ को नहीं बाँध पाती, परन्तु फिर भी दी जाती है। भले ही कभी-कभी नेति नेति (इतना काफी नहीं, इतना काफी नहीं) करके देनी पड़े। ब्रह्मचर्य भी कुछ-कुछ ऐसा विचार है। लेकिन फिर भी इसकी प्रामाणिक परिभाषाएँ उपलब्ध हैं
यह एक महान् भाव है और इसलिए उदात्त भावों की तरह अवर्णनीय है। लेकिन इस बात को इस बहाने की तरह प्रयोग नहीं किया जा सकता कि "हमारी संस्कृति में इसकी परिभाषा स्पष्ट नहीं है" या "इसको स्पष्ट नहीं किया गया है"। इसका अवर्णनीय होना इसके प्रामाणिक होने में बाधक नहीं है। इस लेख में हम ब्रह्मचर्य की परिभाषाओं और उन परिभाषाओं के अन्तस् को देखने का प्रयास करते हैं -
प्राचीन ग्रन्थों में पवित्र डुबकी लगाने से पहले हम संस्कृत के एक प्रामाणिक शब्दकोश में झाँकते हैं। संस्कृत का एक मशहूर शब्दकोश है श्री वामन शिवराम आप्टे का शब्दकोश यह कोश निम्नलिखित अर्थ देता है -


ब्रह्मचर्यम्= 
1.धार्मिक शिष्यवृत्ति, वेदाध्ययन के समय ब्राह्मण बालक का ब्रह्मचर्य जीवन, जीवन का प्रथम आश्रम;
2. धार्मिक अध्ययन, आत्मसंयम;
3. कौमार्य, सतीत्व, विरति, इन्द्रियनिग्रह
[वहीं साथ ही यह कोश एक और शब्द देता है: ]
ब्रह्मचर्या= सतीत्व, कौमार्य

हम देखते हैं कि इनमें से जो-जो अंश गहरे अक्षरों में हैं ब्रह्मचर्य का वह अर्थ स्पष्टतः देते हैं जिसके बारे में जानने के लिए हम लालायित हैं। क्योंकि ब्रह्मचर्य का एक अर्थ तो ब्रह्मचर्य आश्रम (यानी जीवन का पहला विद्यार्थीपन वाला भाग) है ही, लेकिन इसका व्यापक अर्थ कौमार्य, सतीत्व या इन्द्रियनिग्रह भी है इसमें कोई शक नहीं रह जाता। यहाँ शब्दकोश का सन्दर्भ पहले इसलिए दिया गया है, क्योंकि आगे  के उद्धरणों (citations) में जब ब्रह्मचर्य शब्द आयेगा तो उसके अभिप्राय में कोई सन्देह नहीं बचना चाहिये। हालाँकि हमारी अन्वेषणात्मक दृष्टि आगे भी कायम रहेगी लेकिन शब्दकोश का भी महत्त्व है, क्योंकि ये प्राचीन ग्रन्थों के प्रयोगों का बहुकोणीय अध्ययन करने के बाद ही एक-एक अर्थ देते हैं। हम देखते हैं कि प्राचीन महापुरुषों ने ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचर्या शब्दों का प्रयोग इस अवधारणा पर लिखते हुए प्रचुर रूप से किया है। और इसीलिए यहाँ हमने यहाँ 'ब्रह्मचर्य' का कोशकार की दृष्टि में अर्थ दिया है। (यह लेख अभी जारी है...ब्लॉग का प्रथम लेख पढ़ने के लिए ब्रह्मचर्यं नमस्कृत्य चासाध्यं साधयाम्यहम्... पर क्लिक करें।... विज्ञ पाठकों से निवेदन है कि ब्लॉग पर अपने सुझाव/प्रतिक्रियाएँ निस्संकोच दें, ताकि वे आगे के लेखों के लिए उपयोगी हो सकें। धन्यवाद।)

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

ब्रह्मचर्यं नमस्कृत्य चासाध्यं साधयाम्यहम्...


दोस्तों, असाध्य (मुश्किल) तो बहुत कुछ होता है। जीवन में समय समय पर असाध्य चीज़ें सामने आती हैं। और हम लोग उनको साधना चाहते भी हैं। कुछ लोग हिम्मत से साधते हैं, तो कुछ लोग मजबूरी में साधते हैं। जीवन सभी का बीतता है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि मुसीबतों को हिम्मत से साधने में जो मजा है, वो टँग-लटककर साधने (की कोशिश करने) में नहीं है। इसीलिए हमारे देश के एक ऊर्जावान् युवा ने यह उद्‌घोषणा की थी कि मैं ब्रह्मचर्य को नमस्कार करके असाध्य को भी साधता हूँ (ब्रह्मचर्यं नमस्कृत्य चासाध्यं साधयाम्यहम्...)। यह एक प्रसिद्ध श्लोक है। इसने मुझे बार बार ब्रह्मचर्य की ओर आकर्षित किया है। उतनी ही तीव्रता से, उतनी ही उत्कण्ठा से जितनी से कोई.... क्या कहूँ। "कामिहिं नारि पियारि जिमि, लोभिहिं प्रिय जिमि दाम ..."। अब तो समझ ही गये?
जब कोई असाध्य को सधवाने का दावा कर दे, यानी असंभव को संभव बनाने की शक्ति मिलने की बात कर दे, तो सच्चा उत्साही इससे बड़ा आकर्षण कहाँ पायेगा? मेरा भी यही हाल है।
ये तो आधे श्लोक की झलक है, पूरा यह है-
ब्रह्मचर्यं नमस्कृत्य चासाध्यं साधयाम्यहम्।
सर्वलक्षणहीनत्वं  हन्यते  ब्रह्मचर्यया ॥
अर्थ: ब्रह्मचर्य को नमस्कार करके ही मैं असाध्य को साधता हूँ। ब्रह्मचर्य से सारी लक्षणहीनताएँ (यानी व्याधियाँ, विकार तथा कमियाँ) नष्ट हो जाती हैँ।

ऐसे महान् अभ्यास को कम कैसे आँका जा सकता है। यह तो दो-तीन दिन में ही अपनी महिमा चेहरे पे प्रकट करने लगता है, तो फिर इसकी महत्ता जानने के लिए किसी मनोवैज्ञानिक के पास जाने की क्या जरूरत है? इस संयम के जाते ही तो तत्काल मन खुद को दुत्कारने लगता है, तो फिर अब्रह्मचर्य के नुकसान जानने के लिए किसी के ऍक्सपेरिमेंट खंगालने की क्या जरूरत है?
दरअसल हम सभी ब्रह्मचर्य में ही जीना चाहते हैं, इसका स्वयंप्रकाशित प्रमाण यह है कि कोई भी व्यक्ति ब्रह्मचर्य टूटने की अवस्था को पसन्द नहीं करता और ब्रह्मचर्य की अवस्था में अच्छा महसूस कर रहा होता है। लेकिन हम अपने हारमोनों से हारे रहते हैं और उस अच्छी अवस्था को बचाकर नहीं रख पाते जिसमें हममें उत्तम उत्साह था। और ठीकरा ब्रह्मचर्य की कठिनाइयों के सिर पर फोड़ते हैं। सच तो यह है कि ब्रह्मचर्य उतना कठिन नहीं है, जितना कि पर्याप्त ब्रह्मचर्य-सूचना के अभाव में बन जाता है। यह सूचना हम युवावर्ग के लोगों में सतत और सात्त्विक रूप में पहुँचती रहे, यही इस ब्लॉग का लक्ष्य है। मित्रों, आगे जल्दी ही कुछ और सामग्री लिखने का प्रयास रहेगा...।