ब्रह्मचर्य पर दुराग्रहों से ग्रस्त कुछ तथाकथित मनोवैज्ञानिक प्राचीन ग्रन्थों का भ्रामक हवाला देकर भी अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। वे यह तो मानते हैं कि ब्रह्मचर्य की महिमा की गुणगान हमारे प्राचीन ग्रन्थों में किया गया है (क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष सत्य है, इसका वे खंडन नहीं कर सकते) लेकिन अपना उल्लू सीधा करने के लिए ब्रह्मचर्य के अर्थ की जड़ें खोदना शुरू कर देते हैं। वे यह कहते हैं कि जिस ब्रह्मचर्य की बात वहाँ की जा रही है वह वीर्यरक्षा से सम्बन्धित न होकर कुछ और ही है। और आगे वही घिसे पिटे तर्क ... "ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म की खोज, इसका मतलब यह नहीं कि उसमें वीर्यरक्षण जरूरी हो"...वही घिसे पिटे जुमले... "ब्रह्मचर्य का अर्थ है ऐसी जीवनशैली जो ब्रह्म की ओर ले जाये यह जीवनशैली सहज है इसमें इन्द्रियनिग्रह की जरूरत नहीं"। दोस्तों इसके आगे हमें निरुत्तर हो जाना पड़ता है, क्योंकि यह एक ऐसा दावा है जो लगता है कि संस्कृत के ग्रन्थों की खूब खोल-पलट करने के बाद किया गया है। लेकिन क्या ऐसा सचमुच है? नहीं।
मैं जब सोलह सतरह वर्ष का था तब हमारे एक स्थानीय अखबार में एक "मनोवैज्ञानिक" शहर-भर की सारी समस्याएँ सुलझाने के लिए एक स्तम्भ लिखते थे। वे ज्यादातर समस्याओं को घुमा फिराकर मुक्त यौनसन्तुष्टि तक ले आते थे, और फिर जल्दी से अपना प्रिय विषय प्रतिपादित कर देते थे कि ब्रह्मचर्य का कन्सैप्ट ही भारत की सारी समस्याओं की जड़ है। अब सोचिये कि मेरे बालमन पर इसका कितना विलोडक प्रभाव पड़ता होगा। वह तो ईश्वर की कृपा थी कि मुझे अपना खुद का अनुभव बार-बार यह अहसास करवाता रहा कि भाई आनन्द तो ब्रह्मचर्य की स्थिति में ही है। इसके अलावा भी छोटे-मोटे मनोवैज्ञानिक अखबारों में अपना मत रखकर ब्रह्मचर्य के खुद अर्थ पर ही प्रश्नचिह्न लगाते रहते थे। लेकिन हमारे धर्म के नियमों में तो अनुभव की छाप है, और ठीक इसीलिए मेरा भी अनुभव इससे भिन्न नहीं होता था। मैं कभी कभी पसोपेश में भी पड़ा लेकिन अन्त में यही निकलकर आता था कि खुद ही समझ लो, क्या वैसा सोचने में भी शान्ति है? कमोबेश ऐसा पसोपेश सभी युवाओं के मन में ऐसे तर्क सुनकर उत्पन्न होता है। लेकिन हम आपको बता दें कि ऐसे तर्क करने वाले प्रायः धर्मग्रन्थों का केवल सतही ज्ञान ले करके आये होते हैं।
लेकिन हम आपके हित के लिए बता दें कि श्रीमद् भागवत पुराण जो कि भारतीय धर्म और संस्कृति का विश्वकोश कहा जाता है, में ब्रह्मचर्य का बड़ा स्पष्ट प्रतिपादन है वहाँ एक श्लोक आता है-
रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम्।
अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु यतासुस्त्रिपदां जपेत् ॥
- श्रीमद् भागवत पुराण 11 वाँ स्कन्ध, 17 वाँ अध्याय, 25 वाँ श्लोक
अर्थ - ब्रह्मचर्य व्रत धारे हुए व्यक्ति को चाहिये कि अपना वीर्य (रेतस्) स्वयं कभी भी न गँवाए। और यदि वीर्य कभी (अपने आप) बाहर आ ही जाये तो ब्रह्मचर्य व्रतधारी को चाहिये कि वह पानी में अवगाहन करे (यानी नहाये) और थोड़ा प्राणायाम करके गायत्री मन्त्र का जाप करे।
(इसका सन्धि विच्छेद करके शब्द इस प्रकार हैं-
रेतो न अवकिरेत् जातु, ब्रह्मव्रतधरः स्वयम्।
अवकीर्णे अवगाह्य अप्सु यतासुः त्रिपदां जपेत्॥)
यहाँ कुछ भी द्विअर्थी नहीं, यानी समूची व्याख्या सरल है। रेतस् का अर्थ वीर्य ही होता है। ब्रह्मव्रत यानी ब्रह्मचर्य व्रत (यह ब्रह्मचर्य का एक और गौरवपूर्ण नाम है)। इस एक छोटे से श्लोक ने मुझे बहुत सारी शिक्षाएँ दी हैं। पहली बात तो यह है कि यह ब्रह्मचर्य के नाम पर खौफ़ नहीं पैदा करता। बल्कि सत्य को सत्य की तरह रखता है। यह कहता है कि ब्रह्मचर्य व्रती को स्वयं रेतस् का नाश नहीं करना चाहिये। यानी कि यहाँ व्यक्ति की खुद की नीयत ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। और फिर यह, स्वतः वीर्यस्राव को यह हौवे की तरह नहीं रखता, साथ ही, उसका भी प्रतिकार बताता है- कि यदि स्वतः वीर्यस्राव हो जाये तो जल से नहाकर, प्राणायाम करके गायत्री जाप करें। भक्ति के विश्वकोश में यह एक ज्ञान (या विज्ञान) की बात आयी है। नहा लेने से स्वतः स्राव से उत्पन्न होने वाली अपवित्रता कुछ हद तक दूर हो जाती है (ध्यान दें कि स्वतः वीर्यस्राव को भी न होने देने का हमारा प्रयास रहना चाहिये, इसके लिए भी विचार व्यवहार का सुधार करना होता है)। नहाने के बाद प्राणायाम किये जाने से मन की एकाग्रता पुनः सात्त्विक दिशा में मोड़ने में भारी मदद मिलती है (यह परिणाम तुरन्त होता है)। और गायत्री मन्त्र तो ब्रह्मचर्य की विख्यात टेक है ही। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्लोक में ब्रह्मचर्य का अर्थ तो साफ बताया ही है, ब्रह्मचर्य में सहायक तीन तकनीकें भी बोनस के रूप में बता दी गयी हैं (स्नान, प्राणायाम और गायत्री मंत्र का बार-बार उच्चारण)।
इसका मतलब यह हुआ कि प्राचीन भारत में जब श्रीमद् भागवत के सुनने-सुनाने की परंपरा रही होगी, तब लोग ब्रह्मचर्य की अवधारणा को ऐसे श्लोकों के माध्यम से साफ़-साफ़ एक-दूसरे तक और पीढ़ी-दर-पीढ़ी कम्यूनिकेट करते होंगे। आज की तरह नहीं कि ब्रह्मचर्य की बात में शर्म और बाकी बातों में लज्जाहीनता। और यह सर्वमान्य है कि पुराणों का प्रचलन जनसाधारण में काफ़ी था इसलिए लगता है कि ब्रह्मचर्य की अवधारणा को जन-जन तक पहुँचाना प्राचीन तत्त्वद्रष्टाओं की दृष्टि में था। आशा है इस एक श्लोक ने हमारे युवावर्ग के मन में उठने वाले एक प्रमुख सन्देह का निराकरण किया होगा।
इति शुभम्॥