यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता है। यह बड़ा ही उलझाऊ प्रश्न है। इसे अंग्रेज़ी में लोडेड क्वेश्चन (loaded question) कहा जा सकता है। इसका उत्तर सीधे हाँ या नहीं में दे देने से कुछ मतलब नहीं निकलने वाला। इसके लिए पूरी बात लिखनी होगी।
जबर्दस्ती अपनी प्रबल इच्छाओं को दबाने से कुछ लोग जरूर डिप्रेशन का अनुभव करते हैं। लेकिन उन इच्छाओं को खुला लायसेन्स दे देने से भी कोई कल्याण होता नहीं देखा गया है। यह सामान्य अनुभव की बात है।
अपने ऊपर कोई संकल्प-रूपी प्रतिबन्ध न लगाने वाले छात्र अक्सर ही अपने मन के कारण परेशान देखे जाते हैं। और वे अपने पढ़ाई में मन न लगने या यथेष्ट मात्रा में मन न लगने का प्रमुख कारण, प्रायः अपने उन विषयों में घूमते रहने वाले मन को बताते हैं- इसी तथ्य से यह पता चलता है कि वे भी वास्तव में अपने आप को छूट देने के बाद भी सन्तुष्ट नहीं हैं। ऐसे में विवेकानन्द का यह कथन याद आ जाता है, जिसमें वे कन्फ़्यूशियस (एक चीनी दार्शनिक) के एक प्रसिद्ध कथन पर प्रतिक्रिया देते हैं। वे कहते हैं कि- कन्फ़्यूशियस ने कहा कि परलोक की चिन्ता करने से पहले हमें अपने इस लोक को ठीक से सँवारना होगा। लोग परलोक की चिन्ता करते करते परलोक तो पाते हैं या नहीं लेकिन अपना यह लोक बिगाड़ बैठते हैं। लेकिन हम कहते हैं कि परलोक की चिन्ता करने से तो यह लोक बिगड़े न बिगड़े, लेकिन हम इतना जरूर जानते हैं कि इस मायाजाल रूपी इहलोक को सँवारने के लिए अगर इसमें उलझा जाये तब तो यह लोक जरूर बिगड़ जाता है। [हो सकता है कि मेरे शब्दों में कुछ हेरफ़ेर हो गया हो लेकिन भाव यही है।]
कहने का मतलब यह है कि ब्रह्मचर्य के मामले में भी ठीक यही बात लागू होती है। ब्रह्मचर्य से हो सकता है कि अल्पकालीन डिप्रेशन हो, लेकिन अब्रह्मचर्य से, विषयों के पीछे दौड़ने का खुद को खुला लायसेन्स दे देने से- जो जीवन अनियन्त्रित होगा, उससे विद्यार्थियों की पढ़ाई की जो हानि होती है, उससे काम्य के न मिलने से जो विषाद होता है- इन सबसे तो डिप्रेशन होना निश्चित है। इन कारणों से जो डिप्रेशन होगा उनका कोई इलाज भी नहीं दिखता (जबकि ब्रह्मचर्य के उस अल्पकालीन डिप्रेशन का इलाज एक प्रकार से खुद ब्रह्मचर्य ही है)। आप किसी मनोवैज्ञानिक से भी पूछेंगे (कि मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता दूसरी किसी खास तरफ़ भागता है आदि) तो वे भी घूमफिरकर यही सलाह देंगे कि "बेटा उस ओर से मन हटाकर पढ़ाई में लगाओ शुरू में थोड़ी दिक्कत होगी बाद में मन उन चीज़ों को भूल जायेगा" (भले ही वे ही मनोवैज्ञानिक अवसर मिलने पर खुलेपन की पैरोकारी करते हों)- देखा जाये तो यह कोई जवाब न हुआ। यह तो वही बात हुई कि हमने कहा- "डॉक्टर साब मुझे बुखार हो गया है।" और डॉक्टर अपनी पर्ची पर कुल जमा यह प्रेस्क्रिप्शन लिखकर दे कि- "बुखार का इलाज करो"। लेकिन जो विद्यार्थी संयम को आदर्श के रूप में ही रखते हैं (निश्चय ही ऐसे लोग संख्या में बहुत कम होते हैं) उन्हें इस प्रकार की समस्या से निपटना आसान है, क्योंकि उनका मन ऐसी निश्चित मति वाला हो गया है कि कामोपभोग में सार नहीं है। जबकि पहली वाली कैटेगरी के लोगों को तो यह समझाना मुश्किल है कि आखिर क्यों कामोपभोग से दूर रहा जाये, केवल पढ़ाई के लिए? केवल कुछ अच्छे नम्बर लाने के लिए? केवल इसलिए कि हमारे ऊपर कुछ लोगों ने कुछ बोझा लादा हुआ है? क्या हम गधे हैं?.... और इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐसे डिप्रेशन का इलाज नहीं ही दिखता। यदि कोई स्वल्प मात्रा में इसका इलाज कर भी पाता है तो वह अप्रत्यक्ष रूप से ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तों को ही अपना रहा होता है।
ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले जन, अपनी इच्छा के दमन से उत्पन्न डिप्रेशन को दूर करने के लिए प्रायः इन युक्तियों को सरल पाते हैं-
- ब्रह्मचर्य के लाभों को गिनवाने वाली कोई पुस्तक या महापुरुषों के ऐसे विचार पढ़ना। यह एक प्रभावी तरीका है। वस्तुतः हम ब्रह्मचर्य धारण तभी कर पाते हैं जब हम संयम को तुच्छभोगों से अधिक लाभकर मान चुके होते हैं। यानी संयम की तरफ़ के पलड़े पर ज़्यादा वज़न रखे होते हैं। वह पल जब हम वासना के साथ अन्तर्द्वन्द्व में होते हैं, तब हमारे दोनों पलड़े बराबर हो गये होते हैं, यानी हम यह अनुभव कर रहे होते हैं कि शायद वासना ही अधिक जरूरी है, या शायद हमें अपने संयम के संकल्प पर रहने से ज्यादा फायदा है।ऐसे में इन्द्रियाँ अपनी स्वाभाविक कमज़ोरी के कारण कभी भी वासना के पलड़े को भारी कर सकती हैं, लेकिन जैसे ही हम ऐसी लाभकर पुस्तक पढ़ते हैं, हमारे संयम वाले पलड़े पर वज़न पड़ जाता है और हम सहज ही बुराइयों से बच जाते हैं। और चूँकि अब की बार संयम की ओर वापस लौटने का निर्णय मन का सहज निर्णय होता है (ब्रह्मचर्य के लाभ याद करके) इसलिए हम डिप्रेशन से बच जाते हैं।
- ज़ोर-ज़ोर से किसी पवित्र मन्त्र का उच्चारण करना। यह भी एक प्रभावी तरीका है। क्योंकि मन्त्र सहज ही वातावरण को पवित्र कर देते हैं। यह कौन नहीं जानता कि वैदिक मन्त्रों का अर्थ समझ में न आने पर भी उनके उच्चारण की ध्वनि एक पवित्रता का संचार करती है। और खासकर गायत्री मन्त्र (देखें "ब्रह्मचर्य पर श्रीमद् भागवत का स्पष्ट कथन" पोस्ट) इस मामले में विशेष अनुशंसित है। ऐसा करने से मन तथा शरीर एक ओर व्यस्त हो जाते हैं- बलपूर्वक ही सही। ज़ोर-ज़ोर से मन्त्र बोलना एक प्रकार से ओजगुण का संचार करता है (काव्य में तीन गुण होते हैं- प्रसादगुण, माधुर्यगुण और ओजगुण, इनमें ओजगुण का संबंध वीरता से होता है)। और इसीलिए हम अपने लक्ष्य यानी ब्रह्मचर्य की ओर अधिक तत्परता से झुक जाते हैं।
- संयम तोड़ने से होने वाली हानि व बुरे अनुभव के बारे में सोचना। ऐसी सोच हमारे डिप्रेशन का एक प्रकार का तोड़ है क्योंकि यह हमें एक अन्य डिप्रेशन की याद दिलाती है जो अपना रास्ता छोड़ने से हमें बाद में मिलेगा, और जिसका कोई तुरन्त इलाज भी हमारे हाथ में नहीं होगा, जबकि अभी के डिप्रेशन को तो हम केवल अच्छा सोचकर या किसी सृजनात्मक कार्य में मन लगाकर तुरन्त दूर कर सकते हैं।
इसलिए साररूप में हम कह सकते हैं कि ब्रह्मचर्य से डिप्रेशन होता हो यह केवल एक भ्रम है। हाँ, केवल अल्पकालीन डिप्रेशन का अनुभव हो सकता है, वह भी इसलिए कि हम असार में सार देखने लग जायें। लेकिन उसे दूर करने के भी तरीके हैं। यदि ठीक से अपनाये जायें तो न केवल डिप्रेशन तत्काल दूर होता है, बल्कि ब्रह्मचर्य के लाभ भी बढ़ जाते हैं।